मिसाल के तौर पर लाइन में नहीं लगना, टिकट नहीं लेना, गंदगी फैलाना आदि. वहीं जब हम किसी दूसरे शहर की यात्रा करते हैं चाहे पढ़ाई करने जा रहे हों या
पर्यटन के मकसद से. वहां, हमारा पूरा नजरिया ही बदल जाता है. हम नियमों के प्रति अति व्यावहारिक हो जाते हैं और हर नियम मानने लगते हैं. ऐसा लगता है कि हम कितने व्यावहारिक हैं और नियमों से कितना सजग रहते
हैं. लेकिन सवाल उठता है कि आख़िर क्यों होता है ऐसा? तो आइए
इन सवालों के जवाब ढूंढते हैं.
हमारे दृष्टिकोण अलग है...
घूमना हमारे यहां मौज-मस्ती तक ही सीमित है, जबकि बाहर के तमाम शहरों में इसके साथ-साथ कोई न कोई सरोकार भी जुड़ा होता
है. हम धरोहर को केवल घूमने का स्थान समझते हैं इसलिए उन नियमों को दरकिनार कर
जाते हैं जो कि सामाजिक व व्यावहारिक दोनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं.
ज़िम्मेदारी का अभाव...
घूमना तो हमने सीख लिया लेकिन उनके नियमों के प्रति न तो अभी
तक हम व्यावहारिक हो पाए हैं और न ही ज़िम्मेदार. घूमने के दौरान हम उन मामूली
बातों का भी ख़्याल नहीं रखते जो एक पर्यटक के लिए बेहद ज़रूरी होती हैं. हम अपना
कूड़ा-कचरा तक उन्हीं जगहों पर छोड़ आते हैं.
अधिकार की प्रवृत्ति...
घूमने को हम अधिकार समझते हैं जबकि घूमना अधिकार नहीं बल्कि
विशेषाधिकार है. जब हम किसी जगह पर जाते हैं तो अपनी यात्रा के दौरान किसी न किसी
रूप में पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं. कचरा फेंकते हैं या चीजों के साथ
छेड़खानी करते हैं. हमारे इस व्यवहार का असर पर्यावरण के साथ-साथ आर्थिक और
सामाजिक स्थिति पर भी पड़ता है.
नियमों की अनदेखी...
किसी अनजान शहर जाने पर हम सारे नियमों का पालन करते हैं, वहीं अपने होमटाउन में सबकुछ भूल जाते हैं. यदि हम दुसरे शहर में सारे
नियम मान सकते हैं तो अपने होमटाउन पर मानने में क्या हर्ज, जो
हमारी सहूलियत के लिए बनाए गए हैं.
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