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गौरतलब है कि...) शुभ हो दीपावली; धन- अन्न- जन से रोशन




दीपावली पर अर्थ के रूप में लक्ष्मी जी के पूजन की निर्बाध परंपरा तो है ही, धन के साथ अन्न के रूप में भगवती अन्नपूर्णा की वंदना भी की जाती है.

                                                                                           - महिमा सिंह

दीपावली के शुभ अवसर पर हम अपने घर को अपने तरीक़े से सजाते हैं. हमें जो सामान जिस स्थान पर सही लगता है या सहूलियत देता है
, उसे वहीं व्यवस्थित कर देते हैं. परंतु वास्तुशास्त्र में हर एक तत्व के लिए ख़ास दिशा का चयन किया गया है. इसके अलावा रंग और आकृति के भी विशिष्ट प्रभाव होते हैं. इन सबके पीछे मनोवैज्ञानिक और ऊर्जा से संबंधित कारण होते हैं. दिवाली की सजावट करते समय वास्तु के कुछ नियमों को ध्यान में रखेंगे तो यह जीवन में खुशियां, समृद्धि और उपलब्धियां लेकर आएंगा और घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाएगा.

ख़ुशियों की रंगोली...
विज्ञान भी मानता है कि हर रंग की एक ऊर्जा होती है. पूर्वमुखी घर में मुख्य द्वार पर रंगोली बना रहे हैं तो इस दिशा में शुभ और ऊर्जा प्रदान करने वाले रंग जैसे लाल
, पीला, हरा, गुलाबी, नारंगी आदि का उपयोग करें. ये समृद्धि भी बढ़ाएगा. इस दिशा में अंडाकार डिज़ाइन जीवन में उन्नति के नए मार्गों को प्रशस्त करता है.

उत्तर दिशा में पीले, हरे, आसमानी और नीले रंगों के प्रयोग से लहरदार या जल के से मिलती हुई डिज़ाइन बनाएं. दक्षिण-पूर्व में त्रिकोण एवं दक्षिण मुखी घर में ख़ूबसूरत आयताकार पैटर्न की रंगोली में गहरे लाल, नारंगी, गुलाबी और बैंगनी रंगों का प्रयोग करें. पश्चिम मुखी घर के लिए सफेद और सुनहरे रंगों के साथ गुलाबी, पीला, भूरा, आसमानी जैसे रंगों का प्रयोग कर गोलाकार रंगोली या पंचकोण आकार की रंगोली बना सकते हैं. यदि आप रंगोली की सामान्य डिज़ाइन बना हैं तो नकारात्मक आकृति बनाने से बचें.

लोक संस्कृति पर्व
हमारे देश के पर्वों और उनकी प्रकृति की बात करें तो दीपावली सबसे बड़ा पर्व है जो कि प्रतीकों और विविधताओं से भरा हुआ है. एक भी पर्व तब तक लोकप्रिय नहीं होता, जब तक कि लोकहितों को लेकर या लोक के अनुकूल नहीं चलता. दीपावली का धर्म, अध्यात्म, पुराण, व्यापार-व्यवसाय, समाज, परिवार और मानवीय संवेदनाओं से संबंधित एक भरा-पूरा लोक सांस्कृतिक पर्व है. इस पर्व के सम्पादन, संयोजन में प्रतीकों के माध्यम से पर्व की समुचित व्यावहारिकताओं के दर्शन होते हैं.

प्रकाश प्रतिक है ज्ञान का
दीपावली या दिवाली शब्द के उच्चारण मात्र से ही हमारे अंतर्मन में एक आनंदमय चेतना जाग्रत होती है. याद आती है गांव-कस्बों में सिर पर बड़ी-सी टोकरी में रखे दीयों को बड़े ही सुन्दर ढंग से सहेजकर धीमे-धीमे क़दमों से गली-गली, घर-घर दीये रखने जाती कुम्हारिन मावसी, जिसके दीयों से जगमगा उठाते हैं घर-आंगन, द्वार-देहली, मंदिर, चौपाल. यह जगमगाहट है कुम्हार की कड़ी मेहनत की और पसीने से फला दीया प्रतिक है ज्ञान का. पीया प्रेरणा भी देता है कि जलकर भी प्रकाश देना चाहिए. प्रकाश फैलाना उसकी मूल प्रकृति है. वह तो प्रतीक है प्रकाश का.  

अर्थ की पूजा का उत्सव
लक्ष्मी धन की देवी हैं अतः यह वणिक पर्व भी है. व्यवसायी
, व्यापारी और उद्योगपति आज से अपना बहीखाता पूजन में लक्ष्मी जी के सम्मुख रखते हैं. बहीखाते में कुंकुम से ॐ और स्वस्तिक बनाया जाता है. स्वास्तिक गणेशजी के चारों हाथों का प्रतीक है और यही चतुर्मुख ॐ भी है. भाव यह है कि श्रीगणेश व्यापार-व्यवसाय को निर्विघ्न बनाए रखें. पुराना बहीखाता बदलकर वणिक अपना नया व्यवसाय वर्ष प्रारम्भ करते हैं. लक्ष्मीजी के चित्र के आसपास शुभ-लाभ लिखकर हाथों से स्वर्ण मुद्राएं बरसाने वाली लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है.


सभी के प्रति आदरभाव  
लक्ष्मी माता का पूजन अपने-अपने सामर्थ्य से सभी लोग करते हैं. पूजा में अपनी श्रद्धा से स्वर्णाभूषण, अलंकार या मुद्रा आदि रखते हैं. साथ ही मिट्टी के छोटे-छोटे घड़े, घड़िया-घड़ोले में अनाज भरकर लक्ष्मीजी के सामने रखे जाते हैं. साथ ही झाड़ू भी पूजन में रखा जाता लक्ष्मीजी के साथ झाड़ की पूजा करना हमारी उदात्त संस्कृति का परिचायक है. झाड़ू की पूजा दो बातों का प्रतीक है- एक तो छोटी से छोटी वस्तु के प्रति आदर भाव रखना तथा दूसरा झाड़ यानी स्वच्छता का प्रतीक. कचरा घर में निकलता ही रहता है, जैसे कमरे को बरकत है, वैसे ही घर का मालिन्य दूर होकर धन की बरकत बनी रहे. झाडू हमारी आंतरिक सफ़ाई और है. स्वच्छता का प्रतीक भी है.

गृह लक्ष्मी का सम्मान
श्रीलक्ष्मी पूजा के साथ दीपावली के दिन विशेषकर निमाड़ क्षेत्र में बहुओं को टीका लगाकर व वस्त्राभूषण देकर मुंह मीठा कराया जाता है. यह भी एक प्रतीकात्मक परम्परा है कि बहू ही गृहलक्ष्मी है. इनकी पूजा सें हर सुख
, हर आनंद घर में रमता रहेगा. दीपावली की रात की यह मान्यता है कि लक्ष्मीजी हमारे पूरे घर विचरण करती हैं, इसलिए विशेषकर पूजाघर और भण्डारगृह अखण्ड जलता रहे यह सुनिश्चित किया जाता है. अन्न होगा तभी तो धन होगा. धन की देवी महालक्ष्मी की सभी पर कृपा होगी तो जनकल्याण होगा, आनंद का संचार होगा, ख़ुशियों की फुलझड़ियां छूटेंगी और जन के जीवन से तम के बादल छंटेंगे, तभी तो दीपावली सार्थक होगी.

धन के साथ अन्न भी
लक्ष्मी पूजा के समय चौक कलश मांडकर पुष्प, पान, अक्षत के साथ नैवेद्य स्वरूप मिष्टान्न तो रखे ही जाते हैं, धान की लाई और बताशों का विशेष प्रसाद लगाया जाता है. पूजा लक्ष्मीजी की है किंतु उनके साथ ही देवी अन्नपूर्णा के दर्शन भी प्रतीकों के माध्यम से जाग्रत हो उठते हैं. लक्ष्मीजी की पूजा में मिट्टी के छोटे-छोटे घडूले, डुबलियां, चौघट और कुल्हड़ नवधान्य से भरे जाते हैं. कहीं-कहीं मिट्टी से बनी गुजरी पूजी जाती है, जिसे किन्हीं क्षेत्रों में 'गुवालन' भी कहते हैं. इसके चार हाथों में चार घट होते हैं, जिसमें ज्वार, धान, मूंग, मूंगफली और सिर पर रखे मृदा घट में धान की लाई और बताशा भरकर लक्ष्मीजी के साथ पूजा की जाती है. किन्हीं क्षेत्रों में मिट्टी से स्वस्तिक की आकृति बनाई जाती है. इसके चारों छोर पर चार घड़ले बनाए जाते हैं. इन्हें चौघट कहते हैं और इसमें नवान्न भरकर पूजा की जाती है. इन चार घटों के बीच एक बड़ा घट होता है, जिसमें खील-बताशे भरकर प्रसाद लगाया जाता है. हमारे देश का सम्पूर्ण आर्थिक ढांचा कृषि पर ही आधारित है. इस प्रकार की परम्पराओं को देखकर यही लगता है कि दिवाली अन्नपूर्णा और नवान्न का पर्व हैं. अन्न से भरे घडलों की पूजा इस बात का उद्घोष है कि अन्न ही हमारी सम्पन्नता और समृद्धि का मूल है. जिन क्षेत्रों में कपास होता है, वहां के किसान धनतेरस के दिन मंडी में अपना कपास कांटे पर चढ़वाते हैं और उस धन से स्वर्ण-रजत के आभूषण ख़रीदकर पूजा लक्ष्मीजी के सम्मुख रखकर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं.








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