रांची के डीएसपीएम विश्वविद्यालय में आयोजित हुआ अन्तराष्ट्रीय सेमिनार, जनजातीय भाषाओं का हिंदी व उर्दू के बीच संबंध से रूबरू हुए पत्रकारिता और उर्दू विभाग के छात्र


राजधानी रांची में स्थित डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के सभागार में झारखंड की जनजातीय भाषाओं का हिंदी
उर्दू  से संबंध के विषय पर आधारित एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया. दरअसल, जनजातीय भाषाओं का  ऐतिहासिक संबंधहिंदी और उर्दू जैसे भाषाओं से रहा है. इसी संबंध पर व्याख्यान देने के लिए मुख्य अतिथि के रूप में नीदरलैंड से प्रोफेसर डॉ. मोहन कांत गौतम संगोष्ठी में पहुंचे. वे यूरोपियन यूनिवर्सिटीज ऑफ वेस्ट एंड ईस्ट एंड कर्न  इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज के चांसलर भी हैं. उन्हें पुष्पगुच्छ व शॉल देकर सम्मानित किया गया.

मौके पर प्रोफेसर डॉ. मोहन कांत गौतम ने कहा “भाषा बनाई नहीं जातीभाषा संचार के दौरान अस्तित्व में आ जाती हैं”. भाषा बनने की प्रक्रिया एक सोशल फेनोमेनन है. किसी भाषा का व्याकरण और शब्दकोश तो हमारे पास होता हैं पर इसका उपयोग हमारी संस्कृति को दर्शाती हैं.

वहीं, इस संगोष्ठी में झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार मधुकर सर ने भी हिस्सा लिया. उन्होंने अपने बातों की शुरूआत कबीर की पंक्ति से की. जिसमें बताया कि भाषा का जन्म सांकेतिक भाषा के रूप में हुआ था. साथ ही हिंदी और उर्दू को दो बहनों के समान बताया. दोनों भाषाओं की सुंदरता का व्याख्या देने के लिए कई उदाहरण भी दिए. उन्होंने कहा कि भाषा के निम्नीकरण के लिए बाज़ारराजनीति और हम लोग कहीं न कहीं ज़िम्मेदार हैं. इस संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के विद्यार्थीशोधार्थी और शिक्षकगण भी मौजूद रहे. वहीं, इस एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी को एक पुस्तक के रूप में पब्लिश करवाने की घोषणा विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर द्वारा  की गई.

मातृभाषा केवल संवाद के लिए नहीं बल्कि संस्कृति की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. पूरे भारतवर्ष में जनजातीय भाषा का बचाव जरूरी है. 6700 भाषाओं  में से 40% भाषाएं विलुप्ति  की कगार पर  है. जिसमें आदिवासी भाषाएं भी शामिल हैं. बड़ी भाषाएं छोटी भाषाओं के अस्तित्व पर सवाल खड़ी कर रही है. उर्दू और हिंदी दोनों एक ही भाषा थी फूट डालो राज करो की नीति के कारण हिंदी और उर्दू भाषा को अलग कर दिया गया.
      
-डॉ तपन कुमार शांडिल्यकुलपति (डीएसपीएमयू )

यह जो दुनिया है यहां पर अलग-अलग तरह के रीति-रिवाज है. यहां पर रहने वाले लोगों की भाषाएं रहन-सहन भी अलग-अलग है. जैसे कि हमारे झारखंड में अभिनंदन 'जोहार’ बोलकर किया जाता हैवैसे ही अलग-अलग जगह पर अलग-अलग तरह से अभिनंदन या स्वागत किया जाता है.
      
- डॉ सत्यनारायण मुंडापूर्व कुलपति(डीएसपीएमयू) 

हिंदी और उर्दू किसी नई नवेली दुल्हन की दो आंखों के समान हैं. कोई एक आंख ना रहे तो दुल्हन कानी कहलाएगी. ठीक इसी प्रकार जनजातीय भाषा में हिंदी व उर्दू की भूमिका है.
      
- डॉ प्रो मोहम्मद अयूब,  डीन ऑफ ह्यूमैनिटीजउर्दू और मास कॉम विभाग, (डीएसपीएमयू) 

फिल्म का अपना ही अलग तौर तरीका है. इसका अपना एक अलग ही व्याकरण है. फिल्म में प्रयोग होने वाली जो भाषा है वह एक एहसासों की भाषा है. वर्तमान में बहुत सी आदिवासी भाषाएं खतरे में है. दक्षिण की भाषा में संस्कृत भाषा का सम्मिश्रण मिलता है. झारखंड के कुड़ुख और मालतु में संस्कृत भाषा का प्रभाव नहीं मिलता है.
   -दीपक बाड़ा(डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर)

रिपोर्ट: पारुल कुंकल

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